Friday 3 April 2015

"बिनु सत्संग विवेक न होई, रामु कृपा बिन सुलभ न सोई"

                                             हर शास्त्र में विवेक को ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया गया है । विवेक प्राप्त होता है, सत्संग से और सत्संग के लिये चाहिए, अकारण करूणा वरुणालय की कृपा । यह अहैतुकी कृपा बरस तो सब पर रही है, पर इसका अनुभव वह ही कर पाता है जिसने अपने घट को मोह, मद, मत्सर आदि विकारों से, ख़ाली कर लिया है । जितना जितना घट ख़ाली होता जायेगा, उतना उतना ही कृपा का अनुभव प्रगाढ़ होता जायेगा । अहंकार के विगलन के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगी, को अहम् ? से सो अहम् की यात्रा । 
                                              जीव, मोह,मद,मत्सर,अहंकार आदि विकारों से अपने को ख़ाली कैसे करे ? शास्त्रों ने इसके लिए, बहुत सारे उपाय बताए हैं । महर्षि पतांजलि ने इसे यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान और समाधि के आठ सोपानों में विभक्त करते हुए, क्रमश:आगे बढ़ने की बात कही गयी है ।
                                               "करमनयेवाधिकारसते मा फलेषु कदाचिन्,मा करम फल हेतुर भूरमा ते संगोंतस्व करमणि"के द्वारा निष्काम करमों के द्वारा, कर्मयोग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है । "सरव धर्माणि परित्यजय, मामेकं शरणं व्रज । अहं तवाम् सर्व पापेभयो मोक्षषियामि मा शुच: ।" के द्वारा भक्ति योग का प्रतिपादन किया गया है ।    
                                               जप,तप,स्वाध्याय,ईश्वर प्राणिधान,धार्मिक अनुष्ठान,नाम,रूप,लीला,धाम आदि भी विकारों  से मुक्त होने के साधन बताए गये हैं । इनमें से किसी भी एक का आश्रय लेकर, जीव अपनी यात्रा सफलता पूर्वक, पूर्ण कर सकता है । पर मुझे लगता है कि जीव मानस की इस पंक्ति को यदि अपने जीवन में उतार ले तो भी जीव अपने जीवन की सार्थकता प्राप्त कर सकता है । "परिहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई " यह पंक्ति सुनने में जितनी सरल लगती है, जब जीवन में उतारोगे तब पता चलेगा कि यह कितनी कठिन है । 

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